आत्मज्ञान जिसे स्वयं का ज्ञान, साक्षित्व और विशुद्ध चेतना का दर्शन भी कहा जाता हैं। यह आपको भीतर से मिलने वाली शांति हैं। जब आपको स्वयं का बोध नहीं होता तो आप जो आप नहीं है उसे अपना स्वरूप मान लेते हैं, जिसे आत्म-अज्ञान कहेंगे।
लेकिन जब आप आत्म जागरूकता को प्राप्त होते हैं तो आपका भ्रम टुटता है और सत्य का बोध होता हैं।
जब इस संसार में बालक जन्म लेता है, जन्म लेते ही रोने लगता है। जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है, उसका रोना कम होने लगता है और जब वह एक युवक बन जाता है, तो रोना छोड़ देता है। एक युवक रोता नहीं, इसका अर्थ यह नहीं कि उसका सारा दुख मिट गया है। दुख तो वैसा ही है जैसा पैदा होने के बाद था, लेकिन अब उसके आंसू सूख गए हैं।
दुख जीवन भर रहता है। जब भीतर किसी वस्तु को पाने की चाह होती है और वह अभी इस समय पर पास नहीं है, तो अभी इसी समय पर दुख है। अगर कोई बच्चा होता तो रोने लग जाता, लेकिन युवक है तो स्वयं को संभाल लेता है। वैसे ही अगर जीवन में कुछ अनचाहा घटित हो जाए, तो भी दुख होता है। भूतकाल में घटी घटनाओं का बोझ और भविष्य में होने वाली चिंताओं से वर्तमान समय भी कड़वा हो जाता है। और अगर भूतकाल और भविष्य की चिंता कम भी हो, तो वर्तमान में ही क्या कम दुख हैं?
लोग जन्म से लेकर मृत्यु तक बस सुख का पीछा करते हैं। वे मानते हैं कि कोई सांसारिक वस्तु जैसे महंगी गाड़ी, महंगा बंगला या कोई विशेष व्यक्ति आदि, अगर उन्हें मिल जाए तो उनके भीतर कुछ सुधार आएगा। वे ज़रा-सा भी नहीं सोचते कि ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई बाहर की वस्तु या कोई अन्य व्यक्ति मुझे सुख दे सकता है।
यह ऐसा है जैसे पशु-पक्षी अपना पूरा जीवन अन्न और संभोग के पीछे लगा देते हैं। मानव ने उसमें और कुछ वस्तुएं जोड़ दी हैं, लेकिन जीवन तो उसका जानवरों जैसा ही है।
जैसा पेट होता है, जो कभी नहीं भरता, अगर वह भर भी जाए तो बहुत ही जल्दी खाली हो जाता है—जीव अपना पूरा जीवन इसे भरने में लगा देते हैं और वह मृत्यु तक भी खाली ही रहता है। अपना खुद का पेट ही उन्हें जीवन भर ठग रहा होता है। पेट की भूख तो फिर भी प्रमाणिक होती है, पेट वही मांगता है जो उसे थोड़े समय के लिए शांति देता है।
लेकिन मन की भूख का क्या?
मन को तो मनचाही वस्तु दिलाने के बाद भी वह अपूर्ण ही रहता है। एक इच्छा पूरी होने से पहले ही वह दूसरी इच्छा बना लेता है। पैसे आने से पहले ही सोचता है कि पैसों से क्या करूंगा।
लोग ज़रा भी ध्यान नहीं देते कि सुख बाहर से भीतर नहीं आता, बल्कि भीतर से बाहर आता है। जिन विषयों और वस्तुओं का सुख और शांति से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है, फिर भी लोग अज्ञान के कारण उनमें सुख की खोज करने लगते हैं। जैसे कुछ लोग मानते हैं कि उन्हें हिंसा करने में सुख मिलता है, किसी को जंगल में जाकर जानवरों का शिकार करने से सुख मिलता है, किसी को समुद्र के किनारे नाचने में सुख मिलता है, कुछ सोचते हैं नशे की बेहोशी से उन्हें सुख मिलेगा और कुछ तो ऐसे भी होते हैं जो सोचते हैं कि अगर वे मर ही जाएं तो दुख समाप्त हो जाएगा।
इस संसार में लोग अलग-अलग तरह के विषयों व वस्तुओं के पीछे भाग रहे हैं, लेकिन सबको बस एक ही बात चाहिए: सुख और शांति। अंततः सब एक जैसे ही हैं, सबकी खोज केवल सुख और शांति की है।
तो आत्मज्ञान क्या है?
आत्मज्ञान सुख और शांति की प्राप्ति है। जैसे लोगों को तरह-तरह के विषयों व वस्तुओं को पाकर तात्कालिक सुख और शांति मिल जाती है, वैसे ही आत्मज्ञान पाकर भी लोगों को यह मिल जाता है। लेकिन यहाँ अंतर है—आत्मा का सुख विशेष है।
अनात्म विषयों से प्राप्त हुआ सुख तात्कालिक राहत दे सकता है, लेकिन आत्मज्ञान नित्य सुख प्रदान करता है। आत्मज्ञान का सुख किसी संसारिक विषय-वस्तु के कारण मिलने वाला नहीं होता है, यह भीतर से ही आता है, चाहे बाहर कैसी भी स्थिति क्यों न हो।
आत्मज्ञान आपको कोई नई बात नहीं देगा, यह बस आपको इतना बोध करवाएगा कि जिन विषयों में तुम अपना सुख और शांति खोजते हो, वे तुम्हें अंततः दुख ही देने वाले हैं। इस संसार-जाल में मत फँसो—यह सब और से तुम्हें दुख की ओर ही ले जाने वाला है। यह जानकर सुखी हो जाओ कि तुम सदा से सुखी और दुख से मुक्त ही थे। तुमने बस इंद्रिय-तृप्ति की कामनाओं को पूर्ण करने के लिए स्वयं दुख के अंधकार में प्रवेश कर लिया था।
आत्मज्ञान और बौद्धिक विकास,
लोग कहते हैं कि बालक जब जन्म लेता है, तब वह शारीरिक और बौद्धिक रूप से अविकसित होता है, और जैसे-जैसे वह जीवन में आगे बढ़ता है, इस संसार को देखने-समझने लगता है—उसका विकास होने लगता है।
लेकिन इस संसार में कितने ऐसे लोग हैं जिनका बढ़ती आयु के साथ बौद्धिक विकास हुआ है?
जब शिशु जन्म लेता है तो माता-पिता के प्यार के लिए रोने लगता है, बाद में उसका मन बहलाया जाता है, वह हँसने लगता है। जब थोड़ा बड़ा हो जाता है तो खिलौने के लिए रोने लगता है, और बड़ा होने के बाद किसी साथी के लिए। और बड़ा होने के बाद साथी के प्रेम के लिए रोने लगता है—अगर न मिले तो नए साथी के लिए रोने लगता है। जीवन भर बस किसी न किसी के लिए रोता ही रहता है।
जब शिशु था तब भी रो रहा था, और जीवन भर तो रो ही रहा है। पहले माता-पिता के प्यार के लिए रोता था, वह तो भी ठीक था, लेकिन अब तो ऐसी वस्तुओं के लिए रोने लग गया है जो बिल्कुल ही निरर्थक हैं।
अगर यही बौद्धिक विकास है, तो ज्यादा विकसित शिशु को माना जा सकता है—क्योंकि अगर वह रो रहा है, तो कम से कम वह सही रास्ते पर है।
लोग मानते हैं, जो व्यक्ति जितनी अधिक सांसारिक बातों का ज्ञान रखता है, वह उतना ज्यादा बुद्धिमान है। और बच्चों को बुद्धिमान बनाने का काम दुनिया के सबसे बड़े-बड़े महाविद्यालयों से लेकर छोटे-छोटे पाठशालाओं में चल रहा है।
हम पूरी दुनिया को जानना चाहते हैं। लेकिन यह कोई नहीं जानना चाहता कि यह जो जान रहा है, जो अहम (“मैं”) है, यह कौन है? यह कैसे काम करता है? अगर यह किसी को चाहता है तो क्यों चाहता है? किसी से घृणा करता है तो क्यों करता है? किसी से डरता है तो क्यों डरता है? रोता है तो क्यों? प्रसन्न है तो क्यों?
लोग कुछ समझते नहीं, बस जो हो रहा है उसे चलने देते हैं और दुख के समुद्र में डूबते जाते हैं।
हम यंत्र मानव की बुद्धि कैसे काम करती है यह जानना चाहते हैं। लेकिन हम मानव कैसे काम करता है—यह नहीं। यह इतना ज़्यादा आवश्यक नहीं लगता। लोग सोचते हैं कि स्वयं को जानकर क्या मिलेगा? अगर यंत्र मानव को जान लेंगे तो उसे स्वयं के लिए कुछ कर पाएंगे।
अगर हमें आत्मा को जानना ही नहीं है, तो हमें बोध कैसे होगा?
अहंकार और आत्मा का अंतर,
आत्मज्ञान या आत्मबोध कोई साधारण घटना नहीं है। यह बहुत ही कठिन हो सकती है उनके लिए जिनके लिए अपना अहंकार ज्ञान से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण है। जब व्यक्ति का अहंकार टूटने लगता है, तो उसे बहुत मानसिक कष्ट होने लगते हैं, भय और दुविधा की स्थिति बन जाती है, क्योंकि हम अहम को खोना नहीं चाहते। लेकिन आत्मा वहीं है जो अहंकार के परे है। वह आपका ही पवित्र स्वरूप है।
वास्तव में आत्मज्ञान पाना, पवित्रता और बोध को पाना कठिन नहीं है—वह तो बहुत सरलता से उपलब्ध है। कठिन तो अहंकार को त्यागना है। हम जीव हैं, हमें अहंकारी होना ज़्यादा आकर्षित करता है। आत्मिक सुख और आत्मिक शांति से ज़्यादा भौतिक सुख और इंद्रियों की तृप्ति ज़्यादा आकर्षित करती है। इसलिए आत्मज्ञान से दूर जाना लोगों का स्वभाव ही बन चुका है। उन्होंने अपने ही अहंकार और मन को अपने ही शांति का सबसे बड़ा शत्रु बना दिया है।
जब तक अहम प्रधान रहता है, आत्मज्ञान नहीं घटित हो सकता—यह असंभव है। आत्मा परम सत्य है, वह असत्य में बदला नहीं जा सकता। व्यक्ति भले बदल जाए—आत्मा से जीवात्मा लेकिन आत्मा एक-सा रहने वाला है।
इसलिए वह कोई ऐसी वस्तु नहीं जैसे आप प्राप्त कर सकते हैं। उसे उपलब्ध होना पड़ता है—ज्ञान से जान कर, स्वयं को उसके जैसा बनाकर। वह परम पद है, जिसमें विलीन होकर जन्म और मृत्यु वाले सांसारिक जीवन से मुक्ति होती है, सभी तरह की कुंठाओं से मुक्ति होती है।
आत्मा को उपलब्ध होकर, बोध प्राप्त कर व्यक्ति अहंकार को समाप्त कर देता है—जिससे तुरंत सभी दुख समाप्त हो जाते हैं, अहंकार की मृत्यु हो जाती है, और परम पद की उपलब्धि हो जाती है।
अहंकार की मृत्यु और आत्मज्ञान,
जब आपको अनायास आत्म-जागरूकता प्राप्त होती है, या ध्यान और साधना से भीतर की आत्म-जागरूकता का विकास होता है, तो यह आपको बोध दिलाता है। आप समझने लगते हैं कि जिसे मैं अज्ञानता के कारण मेरा स्वरूप मान रहा हूँ—वह तो मैं नहीं हूँ। यह तो कोई दूसरी चीज़ है। तब उसे त्यागना सहज बन जाता है।
जैसे आप स्नान करने जाते हैं तो वस्त्र निकाल कर एक ओर रख देते हैं और आगे जाकर स्नान का आनंद लेते हैं। आपको पता होता है कि ये तो बस कपड़े हैं, मैं इन्हें निकालकर स्नान का मजा ले सकता हूँ।
आत्मा के आनंद सागर में डुबकी लगाने के लिए बस आपको अपने ऊपर चढ़े अहंकार को हटाना है, या ऐसा भी कह लें कि आपको उस पशु को समाप्त करना है जो आपके भीतर स्थित है। जब वह मर जाएगा, तो उसका जीवन अब आपका जीवन नहीं रहेगा।